Madhushala (मधुशाला)
हिन्दी गीति-काव्य के महान कवी बच्चन की 'मधुशाला' ने ७५वे वसन्त की भीनी और मोहक गन्ध के बिच मदभरा स्वप्न देख लिया। स्वप्न ऐसा की जो भविष्य की ओर इंगित करता है की अभी और बरसेगा मधुरस और पियेगे अभी पाथाकगन, युगों-युगों तक याद रहेगी 'मधुशाला'। रस भीनी मधुरत मैं डूबी यह वह 'मधुशाला' है, जिसने पहला वसन्त १९३५ मई देखा और अब तक कई पीढ़ियों ने इसका रसपान किया। 'मधुशाला' की एक-एक रुबाई पाठक के रागात्मक भावों को जगाकर उसके कोमल और एकान्तिक क्षणों को अद्भुत मादकता मैं रसलीन कर देती है । स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर बच्चन जी लिखी गई चार नै रुबाइया भी पुस्तक शामिल कर लि गई हैं।